( तर्ज - आनंद मनाओ हरदममें ० )
कितना तुझको समझाऊँ ए मन !
नहि बात सुने तन - तारणकी ||टेक||
जब रावणने ली चुराय सिता ,
थी खब्र नही उसको प्रभुकी ।
जब वक्त बड़ा सिर आन पड़ा ,
सब खाक हुई लंका उनकी || १ ||
सोचा न जरा दुर्योधनने ,
बुलवाय सभामें द्रौपदिको ।
करवाया नाश सभी अपना ,
प्रभु भेज दिया फलको उनकी ॥१ ॥
सुन रे मन ! मत कर चंचलता ,
दे छोड़ विषय तनके अपने
एक नाम हरीका सुमर सदा ,
पावेगा शांति लखों धनकी || ३ ||
कहे तुकड्यादास न भूल जरा ,
आगे बलवान है काल खड़ा ।
हरिनाम बिना गति है न तुझे ,
मत तान करे अपने मनकी ॥ ४ ॥
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